हर साल दिवाली के दूसरे दिन हिमाचल की वादियों में एक अद्भुत नज़ारा देखने को मिलता है - जब दीपों की रोशनी के बीच पत्थरों की बरसात होती है, तो हवा में गूंजती है परंपरा और श्रद्धा की अनोखी गूंज। शिमला के हलोग धामी में सदियों पुरानी यह रस्म मां भद्रकाली के प्रति अगाध भक्ति और सामूहिक साहस का प्रतीक है। जहां हर चोट केवल दर्द नहीं, बल्कि देवी के चरणों में अर्पित आस्था बन जाती है। यह सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि धामी की पहचान और हिमाचली विरासत की जीवंत मिसाल है। देखें पूरी खबर..

शिमला: (HD News); हर साल दिवाली के दूसरे दिन हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला के हलोग धामी में परंपरा, आस्था और साहस का एक अनोखा संगम देखने को मिलता है। दीपों की रोशनी के बीच जब आकाश में पत्थरों की बरसात शुरू होती है, तो लगता है जैसे सदियों पुरानी संस्कृति आज भी पूरी जीवंतता के साथ सांस ले रही हो। यह है धामी का मशहूर "पत्थर मेला", जो मां भद्रकाली के प्रति भक्ति और बलिदान का प्रतीक माना जाता है।

इस अनूठे मेले में दो टोलियां - एक ओर राजपरिवार की तरफ से तुनड़ू, जठौती और कटेड़ू परिवार, जबकि दूसरी ओर जमोगी खानदान - एक-दूसरे पर पत्थरों की बरसात करती हैं। जब तक किसी एक पक्ष का सदस्य घायल होकर रक्त नहीं निकाल देता, तब तक यह खेल चलता रहता है। मंगलवार को करीब 40 मिनट तक चले इस तीव्र खेल में जमोगी टोली विजयी रही। खेल तब समाप्त हुआ जब कटेड़ू टोली के सुभाष को पत्थर लगा और उनके रक्त से मां भद्रकाली का तिलक किया गया।
धामी की यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। कहा जाता है कि पहले यहां भद्रकाली मंदिर में प्रत्येक वर्ष नरबलि दी जाती थी। बाद में धामी रियासत की रानी ने सती होने से पूर्व इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने का आदेश दिया। इसके बाद पशु बलि शुरू हुई, जो समय के साथ बंद हो गई। उसके बाद से पत्थरों से खेला जाने वाला यह मेला देवी के आशीर्वाद और सामूहिक साहस का प्रतीक बन गया।

हर साल सैकड़ों श्रद्धालु और पर्यटक इस अनोखे मेले को देखने धामी पहुंचते हैं। दर्शकों को पत्थर फेंकने की अनुमति नहीं होती, लेकिन वे इस साहसिक परंपरा को देखने के लिए दूर-दूर से आते हैं। रक्त की हर बूंद, जो मां भद्रकाली के चरणों में गिरती है, हिमाचल की उस गहरी आस्था और परंपरा को जीवित रखती है जिसने सदियों से इस पर्व को पवित्र बनाकर रखा है।
हलोग धामी का पत्थर मेला केवल एक खेल नहीं, बल्कि संस्कृति और इतिहास का उत्सव है। यह परंपरा नए पीढ़ी को अपने इतिहास और धर्म की याद दिलाती है और यह दिखाती है कि संस्कृति की रक्षा और उत्सवों का उत्साह हमेशा जीवित रह सकता है।
