हिमाचल प्रदेश में पंचायतों के पुनर्गठन और पुनर्सीमांकन को कैबिनेट की मंजूरी ने पूरे चुनावी सिस्टम को हिलाकर रख दिया है। सरकार जहां इसे ग्रामीण प्रशासन को दुरुस्त करने के लिए आवश्यक बता रही है, वहीं राज्य निर्वाचन आयोग पहले ही सीमाओं में बदलाव पर सख्त रोक लगा चुका है। इससे प्रदेश में एक अभूतपूर्व स्थिति पैदा हो गई है - एक तरफ चुनाव आयोग के आदेश, दूसरी ओर सरकार का पुनर्गठन का निर्णय। नतीजा, प्रदेश के पंचायत चुनाव अब संवैधानिक, कानूनी और प्रशासनिक संघर्ष के केंद्र में पहुँच गए हैं, और चुनाव चार से छह महीने तक टलने की संभावनाएँ तेज़ हो गई हैं। पढ़ें पूरी खबर
शिमला: (HD News); हिमाचल प्रदेश में पंचायतों के पुनर्गठन और पुनर्सीमांकन को कैबिनेट की मंजूरी ने पूरे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र में गहरा विवाद खड़ा कर दिया है। जहां सरकार इस कदम को आवश्यक प्रशासनिक सुधार और स्थानीय जरूरतों की पूर्ति बता रही है, वहीं राज्य निर्वाचन आयोग पहले ही पुनर्सीमांकन पर रोक लगा चुका है। ऐसे में यह निर्णय सरकार और आयोग को सीधे टकराव की स्थिति में ला सकता है। मामला अब तेजी से एक बड़े संवैधानिक और चुनावी संघर्ष का रूप ले रहा है।
पुनर्गठन क्यों ? सरकार के तर्क और शिकायतों की असल तस्वीर :-
प्रदेश सरकार को बीते लंबे समय से कई जिलों में बार-बार शिकायतें मिल रही थीं कि पंचायतों की सीमाएं वर्षों से असंतुलित हैं। कई पंचायतें लगातार महिलाओं के लिए ही आरक्षित चल रही हैं, जिससे सामान्य श्रेणी के वार्डों में प्रतिनिधित्व की प्रक्रिया बाधित है। वहीं कई पंचायतों में आबादी बढ़ने के बावजूद सीमाएं बदली नहीं गईं, जिससे विकास खंड मुख्यालय कई गांवों से बहुत दूर हो गए हैं। वार्डों का असमान वितरण और भौगोलिक विसंगतियों ने ग्रामीण विकास को प्रभावित किया है। इन्हीं सब कारणों को आधार बनाते हुए सरकार ने दावा किया कि पंचायतों के पुनर्गठन और पुनर्सीमांकन के बिना ग्रामीण शासन तंत्र को दुरुस्त नहीं किया जा सकता।

कैबिनेट की मंजूरी के बाद विवाद तेज़, चुनाव आयोग के आदेश की अनदेखी ? :-
कैबिनेट बैठक में जैसे ही पुनर्गठन और पुनर्सीमांकन पर मुहर लगी, विवाद तेज़ हो गया। क्योंकि राज्य निर्वाचन आयोग पहले ही आदर्श आचार संहिता की धारा 12.1 के तहत स्पष्ट आदेश दे चुका है कि चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक पंचायतों की सीमाओं, क्षेत्र या संरचना में कोई भी बदलाव नहीं किया जा सकता। आयोग के इस आदेश को सभी विभागों और अधिकारियों को सख्ती से पालन करने के निर्देश दिए गए हैं। इस स्थिति में सरकार का पुनर्सीमांकन की ओर कदम बढ़ाना सीधे चुनाव आयोग के आदेशों के विपरीत माना जा रहा है, जिससे टकराव की जमीन तैयार हो गई है।
आयोग की तैयारियां लगभग पूरी, बैलेट पेपर छप चुके - अब उलटफेर से बढ़ी चुनौती :-
चुनाव आयोग पंचायत चुनाव की तैयारियों को अंतिम रूप दे चुका है। कई जिलों में बैलेट पेपर छप चुके हैं और चुनाव सामग्री उठाई जा चुकी है। लाहौल-स्पीति, किन्नौर और कुल्लू के उपायुक्त सोमवार सुबह घोड़ाचौकी प्रिंटिंग प्रेस से चुनाव सामग्री उठा चुके हैं। इसी बीच, यदि पुनर्गठन लागू होता है तो मतदाता सूचियों से लेकर वार्ड सीमाओं तक हर चीज को नए सिरे से तैयार करना पड़ेगा। बैलेट पेपर और सामग्री की छपाई भी दोबारा करवाई जाएगी। आयोग की यह तैयारी और सरकार का यह निर्णय अब एक-दूसरे के बिल्कुल उलट दिशा में खड़े दिखाई दे रहे हैं।

नई पंचायतों के गठन के संकेत: सरकार के भीतर से ही मिला स्पष्ट इशारा :-
कैबिनेट की मंजूरी के बाद सचिव पंचायती राज सी. पालरासू ने साफ कहा है कि सीमा निर्धारण और पंचायत गठन सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। उन्होंने संकेत दिए कि आने वाले दिनों में नई पंचायतों के गठन की संभावना भी पूरी तरह खुली हुई है। यानी यह सिर्फ मौजूदा पंचायतों की सीमाएं बदलने का मामला नहीं, बल्कि प्रदेश के ग्रामीण ढांचे के पुनर्निर्माण का बड़ा कदम है। यह फैसला कई क्षेत्रों में राजनीतिक समीकरणों को बदल सकता है।
आपदा एक्ट के सहारे सरकार के तर्क, पर कानूनी सवाल बरकरार :-
राजस्व मंत्री जगत नेगी का बयान और ज्यादा विवाद को बढ़ाता है। उनका कहना है कि प्रदेश में आपदा प्रबंधन अधिनियम (Disaster Act) लागू है, और चुनाव इसी अधिनियम के संदर्भ में होंगे। यह संकेत देता है कि सरकार पुनर्गठन को आपदा एक्ट के दायरे में रखकर चुनावी प्रक्रिया में बदलाव को न्यायसंगत साबित करने की तैयारी में है। लेकिन कई कानूनी विशेषज्ञ यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या आपदा एक्ट का इस्तेमाल चुनावों को प्रभावित करने के लिए किया जा सकता है? यह एंगल भी अब राजनीतिक बहस का मुख्य हिस्सा बनता जा रहा है।
कोर्ट की सुनवाई भी महत्वपूर्ण कड़ी—मामला अर्धन्यायिक :-
पंचायती राज मंत्री अनिरुद्ध सिंह ने साफ कहा है कि यह मुद्दा अर्धन्यायिक प्रकृति का है और 22 तारीख को कोर्ट में सुनवाई के दौरान कई चीजें स्पष्ट होंगी। इसका मतलब है कि सरकार भी इस मामले को लेकर पूरी तरह सुरक्षित नहीं है और कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रही है। यदि कोर्ट आयोग के आदेशों को प्राथमिकता देता है, तो सरकार का निर्णय रुक सकता है।

निर्वाचन आयुक्त अनिल खाची का स्पष्ट और बेबाक बयान - चुनाव टलने के संकेत बेहद मजबूत - राज्य निर्वाचन आयुक्त अनिल खाची ने स्थिति को बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में रखा :-
हिमाचल प्रदेश में पंचायत चुनाव को लेकर असमंजस और गहरा गया है, क्योंकि राज्य निर्वाचन आयुक्त अनिल खाची का बयान स्थिति को बिल्कुल स्पष्ट कर देता है। खाची ने कहा कि यदि पंचायतों का पुनर्गठन और पुनर्सीमांकन लागू होता है, तो चुनावों का चार से छह महीने तक आगे जाना स्वाभाविक है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि कैबिनेट के फैसले पर आयोग तभी कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया देगा जब सरकार की ओर से लिखित सूचना प्राप्त होगी। उनका यह रुख संकेत देता है कि आयोग अपनी स्वायत्त प्रक्रिया में किसी भी तरह के हस्तक्षेप को स्वीकार करने के मूड में नहीं है। खाची का बयान न केवल पंचायत चुनावों के टलने की आशंकाओं को मजबूत करता है, बल्कि यह भी बताता है कि आयोग अपने अधिकार-क्षेत्र और स्वतंत्र निर्णय क्षमता को लेकर पूरी तरह दृढ़ और सतर्क है।
चुनावी समयसीमा पर गहरा असर: पूरा कैलेंडर उलट सकता है
हिमाचल की पंचायतों का कार्यकाल 31 जनवरी 2026 को पूरा होने जा रहा है, जबकि 50 शहरी निकाय 18 जनवरी को ही समाप्त हो जाएंगे। यदि पुनर्गठन लागू होता है तो—
- नई मतदाता सूचियां तैयार होंगी
- वार्डों का पुनः निर्धारण होगा
- नई पंचायतें बनाई जा सकती हैं
- सीमाएं बदली जाएंगी
- बैलेट पेपर और सामग्री का पुनर्मुद्रण होगा
इन सभी प्रक्रियाओं में 4 से 6 महीने का समय लगना स्वाभाविक है। इससे पूरा चुनावी कैलेंडर उलट सकता है और निकायों के साथ पंचायत चुनाव भी आगे खिसक सकते हैं।
हिमाचल में पंचायतों के पुनर्गठन का निर्णय सिर्फ प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि एक बड़े संवैधानिक संघर्ष की शुरुआत है। सरकार अपनी आवश्यकताओं और अधिकारों का हवाला दे रही है, जबकि राज्य निर्वाचन आयोग अपने स्वतंत्र अधिकार-क्षेत्र की रक्षा में दृढ़ है। चुनावी प्रक्रिया पूरी तरह चौराहे पर खड़ी है—जहां एक ओर पंचायतों की नई सीमाओं और नई पंचायतों का रास्ता खुल रहा है, वहीं दूसरी ओर चुनाव की समयसीमा धुंधली होती जा रही है। अब कोर्ट की सुनवाई, आयोग की लिखित प्रतिक्रिया और सरकार का अगला कदम तय करेगा कि प्रदेश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया समय पर आगे बढ़ेगी या कई महीनों के लिए ठहर जाएगी। आने वाले दिनों में यह विवाद हिमाचल की राजनीतिक व प्रशासनिक दिशा को गहराई से प्रभावित करेगा।