हिमाचल प्रदेश की हसीन वादियों में सियासत की आँधियाँ भले ही चुनाव-दर-चुनाव बदलती रही हों, लेकिन एक चीज़ है जो लगातार बढ़ती रही है - आम जनता के सिर पर बढ़ता कर्ज़। राज्य में सरकारें आती गईं, वादे बदलते गए, योजनाएं बनती और अधूरी छूटती रहीं, लेकिन ऋण का पहाड़ आम नागरिकों की ज़िंदगी पर और भारी होता चला गया। ताजा आंकड़ों के अनुसार, हर हिमाचली नागरिक पर अब औसतन ₹1.10 लाख का कर्ज़ है।
सरकारें आईं, गईं... और जनता कर्ज-तले दबती गई..
सांकेतिक तस्वीर
शिमला: (HD News); हिमाचल प्रदेश, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता और शांत वातावरण के लिए जाना जाता है, आज एक गंभीर आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहा है। सीमित संसाधनों और बढ़ते राजकोषीय घाटे के चलते राज्य पर कर्ज़ का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। सरकारें बदलती रहीं, योजनाएं बनती रहीं। हिमाचल की राजनीति में एक बात तो स्थायी है - सत्ता का संगीत कुर्सियों के इर्द-गिर्द चलता रहता है, लेकिन आम जनता के माथे पर चढ़ता कर्ज़ कभी कम नहीं होता। जो पार्टी कुर्सी पर बैठती है, वह दावा करती है कि अब ‘विकास’ की गंगा बहेगी। और जब तक वह बहती है, आपके ऊपर औसतन ₹1.10 लाख का सरकारी ‘प्रसाद’ यानी कर्ज़ चढ़ चुका होता है।
2022 में जब भाजपा की सरकार अलविदा कह रही थी, तो अपने साथ ₹92, 000 का भार भी प्रतिव्यक्ति की पीठ पर लाद गई थी। अब मौजूदा सरकार ने इसे "विकास की रफ्तार" कहकर और बढ़ा दिया है। अब औसतन कर्ज ₹1.10 हो गया है। क्या ग़ज़ब का "गिफ्ट सिस्टम" है, जिसमें सरकारें बदलती हैं लेकिन जनता की जेब खाली होने की रफ्तार बढ़ती जाती है। कुछ तोहफे ऐसे होते हैं जो बिना मांगे मिलते हैं, और शायद यही ‘राजनीतिक इनाम’ है- बिना एप्लाई किए, सीधे आपके सिर पर लोन का स्टांप लग जाता है

विकास = कर्ज़, कल्याण = उधारी, जनता = गारंटर!
हर नई योजना के साथ सरकारें झूमती हैं - "हम देंगे मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त यात्रा!" पर ध्यान रहे, यह "मुफ्त" उन्हीं पैसों से दी जाती है, जो सरकार खुद उधार लेकर खर्च कर रही है। यानी आप टैक्स भरिए, कर्ज़ लीजिए, फिर उस पैसे से सरकार आपको ‘तोहफा’ देगी। इस सरकारी तंत्र का गणित कुछ यूं है - कल्याण की गाड़ी ऋण के इंजन से चल रही है, और ड्राइवर को ब्रेक का मतलब ही नहीं पता।
हर साल बजट आते ही मंत्रियों की मुस्कान चंडीगढ़ से दिल्ली तक चमक उठती है। पेंशन स्कीम से लेकर युवाओं के लिए भत्ते तक, हर चीज़ का ऐलान होता है। और पीछे बैठी जनता सोचती है - “वाह! सरकार तो हमारे लिए कितना कुछ कर रही है।” असल में, सरकारें कर तो रही हैं - पर भविष्य गिरवी रखकर। ये घोषणाएं कर्ज़ के पंखों पर उड़ती हैं, और जब बिल भरने का वक्त आता है, तब जनता के हिस्से में आता है टैक्स, महंगाई, और दिवालियापन का डर।
आज प्रदेश बजट का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ ब्याज चुकाने में खर्च हो रहा है। यानी विकास कार्यों से पहले कर्ज़ की किस्त जमा कराना जरूरी हो गया है। स्कूलों में शिक्षकों की कमी हो, अस्पतालों में डॉक्टर न हों, सड़कों पर गड्ढे हों - कोई बात नहीं ! लेकिन वर्ल्ड बैंक, एशियन बैंक, और राष्ट्रीय वित्त आयोग को समय पर भुगतान होना चाहिए - क्योंकि हम "विकासशील प्रदेश" हैं ना!
अब सरकारें वोट मांगती हैं, ‘ऋण भरो योजना’ के तहत
चुनावी घोषणापत्र अब सीधे बैंक की पासबुक में लिखे जा सकते हैं — “हम आएंगे, और आपके हिस्से ₹20, 000 और जोड़ेंगे।” ये घोषणाएं ऐसे की जाती हैं जैसे कोई ‘ऋण मेला’ चल रहा हो। वोट दो और बदले में जीवनभर की उधारी पाओ। सादगी का युग तो गया, अब जनता के सिर पर ‘प्रति व्यक्ति लाखों का ऋण’ होना ही प्रगति का पैमाना है।
दोष किसका? जनता की चुप्पी भी बराबर की जिम्मेदार
सरकारें तो वही करेंगी जो उन्हें वोट दिलाए। अगर जनता मुफ्त की योजनाओं के नाम पर सवाल पूछना छोड़ दे, तो कर्ज़ का बढ़ना तय है। आज हालात ये हैं कि एक नवजात शिशु भी पैदा होते ही ₹1.10 लाख का कर्ज़दार हो चुका है, और स्कूल पहुंचते-पहुंचते वह शायद जान भी न पाए कि उसके सिर पर एक अदृश्य लोन की पोटली लदी है।
अब चुप रहना मुनाफे का सौदा नहीं, यह तो घाटे की उधारी है। हिमाचल की खूबसूरत वादियों में छिपे आर्थिक काले बादल अब गरजने लगे हैं। सरकारें भले ही आंकड़ों की लाली से खुद को रंगीन दिखाएं, लेकिन हकीकत यही है कि आपका भविष्य गिरवी रखा जा चुका है। यह समय है जब जनता को जागरूक होना होगा। पूछना होगा कि "कर्ज़ कब चुकाओगे?" और ये भी कि "विकास अगर उधारी पर है, तो क्या ये सच में हमारा है ?"
सरकारें बदलीं, घोषणाएं हुईं, लेकिन ऋण का ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ता रहा। अब सरकार के पास विकल्प सीमित हैं या तो आय बढ़ाई जाए या खर्च में कटौती हो। लेकिन जब तक कोई ठोस और दीर्घकालिक नीति नहीं बनाई जाती, तब तक हर हिमाचली इस ऋण के बोझ तले दवता ही रहेगा।

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