हिमाचल प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था का सबसे बड़ा चेहरा कहे जाने वाला इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज (IGMC), शिमला आज एक असहज और असहनीय सच का सामना कर रहा है। करोड़ों रुपये के बजट, आधुनिक इमारतों और चमकदार इंफ्रास्ट्रक्चर के दावों के पीछे एक ऐसी व्यवस्था छिपी है, जहां मरीज इलाज के लिए नहीं, सिस्टम की विफलताओं से जूझने के लिए मजबूर है। विडंबना यह है कि जिस संस्थान का उद्देश्य जीवन बचाना है, वहां सबसे पहले मरीज का समय, सम्मान और जेब दम तोड़ रही है। IGMC में इलाज अब चिकित्सा प्रक्रिया नहीं, बल्कि पार्किंग, अपॉइंटमेंट और अव्यवस्था के बीच फंसी एक कठिन लड़ाई बन चुका है - और यह लड़ाई आम आदमी रोज़ हार रहा है। पढ़ें विस्तार से -
शिमला: (HD News); हिमाचल प्रदेश का सबसे प्रतिष्ठित स्वास्थ्य संस्थान, इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज (IGMC), आज अपने ही विरोधाभासों के बोझ तले कराह रहा है। सरकार ने विकास के दावे करते हुए करोड़ों का बजट बहाकर गगनचुंबी इमारतें तो खड़ी कर दीं, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि यह ‘इंफ्रास्ट्रक्चर’ अब आम जनता के लिए सुविधा नहीं, बल्कि पीड़ा और अपमान का पर्याय बन चुका है। अस्पताल का काम इलाज देना है, लेकिन IGMC में मरीजों की पहली और सबसे कठिन लड़ाई बीमारी से नहीं, बल्कि ‘पार्किंग’ से होती है।

ग्राउंड जीरो से हकीकत: एक घंटे की भटकन और टूटा हुआ हौसला
हाल ही में नैंसी वर्मा की एक ग्राउंड रिपोर्ट ने IGMC के दावों की पोल खोलकर रख दी है। यह कहानी किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उन हजारों बेबस मरीजों की है जो रोज उम्मीद लेकर यहां आते हैं।
सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे वीडियो में तीमारदार नैन्सी वर्मा ने IGMC की इस कड़वी सच्चाई को बयां किया है। इस वीडियो में देखिए एक तीमारदार का गुस्सा जो हर हिमाचली का दर्द -
एक मरीज सुबह 9:50 पर अस्पताल पहुँचता है, जिसकी डॉक्टर के साथ 10:00 बजे की अपॉइंटमेंट है। कायदे से उसे इलाज मिलना चाहिए था, लेकिन अस्पताल परिसर में घुसते ही सिस्टम उसके सामने हथियार डाल देता है। पार्किंग न मिलने के कारण वह मरीज एक घंटे तक गाड़ी लेकर भटकता है और अंततः 2 किलोमीटर दूर गाड़ी खड़ी कर, बीमारी की हालत में दौड़ते-भागते ओपीडी पहुँचता है। वहां उसे दो टूक जवाब मिलता है - “समय खत्म, अब कल आइए।” यह केवल समय की बर्बादी नहीं, बल्कि एक मरीज के विश्वास की हत्या है।
वीआईपी कल्चर का ‘दोहरा चरित्र’ बेनकाब
इस अव्यवस्था के बीच IGMC का सबसे घिनौना चेहरा ‘वीआईपी कल्चर’ के रूप में सामने आया है। ग्राउंड रिपोर्ट में एक प्रत्यक्षदर्शी युवक ने सिस्टम की रूह कंपा देने वाली सच्चाई बयां की। जब आम आदमी अपनी गाड़ी खड़ी करने की जगह मांगता है, तो सुरक्षा कर्मी “इमरजेंसी रोड” का हवाला देकर उसे खदेड़ देते हैं। लेकिन ठीक उसी वक्त, उसी निषिद्ध क्षेत्र में रसूखदारों और जान-पहचान वालों की लक्जरी गाड़ियाँ शान से पार्क करवाई जाती हैं।

युवक का यह सवाल सत्ता के गलियारों में गूंजना चाहिए- “अगर नियम हैं, तो सबके लिए एक जैसे क्यों नहीं? क्या अस्पताल की सुविधाएं केवल खास वर्ग के लिए आरक्षित हैं?”
प्लानिंग पर बड़ा प्रश्नचिन्ह: बेसमेंट कहां गया?
इतने विशाल ओपीडी ब्लॉक और ट्रॉमा सेंटर का निर्माण करते समय क्या सरकार, प्रशासन और आर्किटेक्ट यह भूल गए कि अस्पताल में डॉक्टरों से कहीं ज्यादा मरीज और तीमारदार आते हैं? अगर पूरा बेसमेंट पार्किंग के लिए संभव नहीं था, तो कम से कम एक या दो फ्लोर मल्टी-लेवल पार्किंग के लिए क्यों नहीं रखे गए? आज स्थिति यह है कि मरीज को कभी शमियाना, कभी ओपीडी, कभी जांच कक्ष, तो कभी बाजार भेजा जाता है। इस अव्यवस्था में मरीज की हालत और बिगड़ जाती है, लेकिन सिस्टम उसे राहत देने के बजाय विभागों के बीच फुटबॉल की तरह घुमाता रहता है।
यह ईंट-पत्थर का नहीं, मानवीय संवेदना का सवाल है -
IGMC का वर्तमान संकट यह चीख-चीख कर कह रहा है कि अस्पताल केवल मशीनों और इमारतों से नहीं, बल्कि सुगमता और संवेदना से चलता है। अगर मरीज समय पर डॉक्टर तक पहुँच ही नहीं सकता, तो अस्पताल के भीतर बैठे विशेषज्ञ किस काम के?
यह मुद्दा अब केवल ‘पार्किंग’ तक सीमित नहीं रहा, यह ‘मानवाधिकार’ और ‘गरिमापूर्ण इलाज’ के अधिकार का मुद्दा है। सरकार और अस्पताल प्रशासन को यह समझना होगा कि यदि समय रहते इस अव्यवस्था का स्थायी समाधान नहीं निकाला गया, तो जनता की यह बेबसी बहुत जल्द एक बड़े जनांदोलन की शक्ल अख्तियार कर लेगी।

IGMC शिमला का पार्किंग संकट अब किसी एक विभाग, एक दिन या एक मरीज की समस्या नहीं रहा यह पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था की संवेदनहीनता और विफल योजना का प्रमाण बन चुका है। जब एक मरीज समय पर डॉक्टर तक नहीं पहुंच पाता, जब गरीब और ग्रामीण परिवार इलाज के नाम पर आर्थिक रूप से टूट जाते हैं, और जब नियम सिर्फ आम आदमी के लिए सख्त व प्रभावशाली लोगों के लिए नरम हो जाते हैं, तब यह मान लेना चाहिए कि सिस्टम ने अपना नैतिक दायित्व खो दिया है। अस्पताल केवल इमारतों और मशीनों से नहीं चलता, वह सुविधा, समानता और मानवीय सम्मान से चलता है। अब सरकार और प्रशासन को यह तय करना होगा कि IGMC सिर्फ आंकड़ों और उद्घाटन की तस्वीरों तक सीमित रहेगा या वास्तव में मरीज-केंद्रित संस्थान बनेगा। क्या आपने भी IGMC में ऐसी ही अव्यवस्था का सामना किया है? अपनी आपबीती हमें कमेंट बॉक्स में बताएं। आपकी आवाज़ ही बदलाव की शुरुआत है।