अर्की: देवभूमि हिमाचल अर्थात देवों की धरती का शासन आज भी देवों के अधीन है । देवताओं में लोगों की गहरी आस्था श्रद्धा देवताओं के चमत्कारों का वर्णन करने के लिए काफी है, जिला सोलन की अर्की तहसील में पड़ने वाले बाड़ी धार; हिन्दी में अर्थ बड़ी पहाड़ी जहां विराजतें हैं स्वयं धर्मराज युधिष्ठर बाड़ा देव, जिन्होंने महाभारत काल में अज्ञातवास के दौरान यहां शिव भगवान की तपस्या की तब से बाड़ीधार में बाड़ेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर अर्की, हिमाचल प्रदेश में लोगों की आस्थाओं का प्रतीक है ।
पहाड़ी बोली का एक शब्द हिन्दी में बड़ा देव शब्दों से अर्थ लें तो देवताओं में बड़ा या श्रेष्ठ, लेकिन वास्तविक अर्थ पाण्डवों के बड़े भ्राता धर्मराज यु़िद्धष्ठिर से हैं, यूं तो समूचे हिमाचल को पाण्डवों के साथ जोड़ा जाता है और उनके प्रतीक आज भी ज्यों त्यों हैं। लेकिन खेद का विषय यह है कि छोटा राज्य होने के कारण ये उतने प्रसिद्ध नहीं हो पाएं हैं जितने भारत के अन्य स्थान। बाड़ी की धार यहां पाचों पाण्डव विराजतें हैं जो यहां अलग अलग नामों से पूजे जातें हैं। इसके पीछे एक कहानी यह है, पाण्डव अज्ञातवर्ष में शिवजी को ढूंढते हुए हिमाचल आए ; क्योंकि हिमालय शिव का स्थान है पौराणिक ग्रन्थों में एसा वर्णन है और यहां की पर्वत मालाएं शिवालिक अर्थात शिव की जटाएं कहीं जातीं हैं, जैसे ही उन्हें पता चला कि बाड़ी की धार पर्वत पर शिवजी की धुनी है, शिवजी के दर्शन की इच्छा लेकर पाण्डव वहां गऐ दो दिन में तथा तीन रात में वहां प्रतिदिन जाते रहे उन्हें शिवजी की धुनी तो मिली पर शिवजी नहीं मिले देवज्ञा से उन्हें वहीं प्रतिष्ठित हो जाने का आदेश हुआ और आकाशवाणी हुई की आज से ये पाण्डवों में सबसे ज्येष्ठ युधिष्ठर के नाम से जाना जाएगा और यह स्थान बाड़ी की धार के नाम से विख्यात होगा। और पाण्डवों को भी अन्य स्थान मिले और वो उन स्थानों पर पूजे जातें हैं, कालान्तर में वहां बाड़ा देव की पूजा होने लगी, कहतें हैं कि पहाड़ी की दूसरी तरफ भूतों का साम्रराज्य था वहां पर भूतों के लिए प्रारम्भ में नरबली दी जाती थी जो बाद में पशुबली हो गई बाड़ी की धार में मेला होता है जहां पांचों पाण्डव अपने अपने स्थानों से आकर बाड़ा देव से मिलतें हैं। वहां रात को कोई नहीं रूकता था बाड़ा देव भूतों से लोगों की रक्षा करते थे। एक बार मेले में गया एक आदमी कौतुहलवश की रात को यहां क्या होता होगा एसा सोचकर वहां रूक गया और एक वृक्ष पर चढ़ गया जब अंधेरा घिरने लगा तो वहां भूतों का ताण्डव शुरू होने लगा वो लोगों द्वारा दी गई बलियों का भक्षण करने लगे वो व्यक्ति भयभीत हो गया और चिल्लाने लगा भूत उसको डराने लगे तो उसने बाड़ा देव से प्रार्थना की कि हे देव आप मुझे इस विपत्ति से बचा लें मेरी रक्षा करें उसी समय वह वृक्ष वहां से उखड़ा और दयोथल नामक स्थान पर स्थापित हो गया जो आज भी वहां है। उसके पश्चात वह आसपास के क्षे़त्र में विख्यात हो गए । यहां हर साल मेला लगता है जो बाड़ी का मेला के नाम से जाना जाता है। बाड़ा देव आज भी गुरो के माध्यम से लोगों की समस्याओं का निवारण करतें हैं।
“आषाढ़ मास की सक्रांति को हर वर्ष होता है बाड़ी मेला”
‘बाड़ी का मेला’ हिमाचल प्रदेश के जिला सोलन के अर्की तहसील (Tehsil ARKI of Distt SOLAN) में प्रति वर्ष “आषाढ़ मास की सक्रांति को मनाया जाता है। प्रतिवर्ष यह मेला 15 जून को मनाया जाता है । यह मेला पांडवों के प्रति लोगों की अथाहश्र्द्धा का प्रतीक माना जाता है। ‘बाड़ी का मेला’ बाड़ी नमक स्थान पर आयोजित होता है। इस मेले की परंपरा कई वर्षों से चली आ रही है। बाड़ी अर्की से लगभग 26 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान पर पहुँचने के लिए अर्की-भराड़ी घाट के मध्य रास्तें में पिप्लुघाट नामक स्थान से 10 की.मी की दूरी पर है। पिप्लुघाट से यह मार्ग अगर आप अर्की से आ रहे हैं तो बायीं ओर मुड़ जाता है और यदि आप भराड़ी घाट की ओर से जा रहे हैं तो यह रास्ता दायीं ओर मुड़ जाता है।
बाड़ी धार हिमाचल प्रदेश का एक सुन्दर मनमोहक स्थान है। इसके चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखाई पड़ती है और लोगों को लगता है मानो वे साक्षात देव लोक में आ गए है। कहा जाता है की जब अंग्रजो ने बाड़ी धार को अपनी राजधानी बनाना चाहा क्योंकि बाड़ी धार की ऊंचाई शिमला जाखू से ढाई मुठी ऊँची थी लेकिन नाकाम रहे क्योंकि बाड़ा देव ने अंग्रजों के मंसूबों पर पानी फेर दिया जैसे ही उन्होंने वहां अपना कार्य आरम्भ किया तो उसी क्षण रिउँगलों ने अंग्रजों पर हमला बोल दिया। वे एक दिन भी वहां नही रुक पाये और सीधे बाड़ी धार के समान मनमोहक स्थान तलाश करने लगे। कहा जाता है की उसके बाद अंग्रेजों ने शिमला को अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया था।
बाड़ीमेले में आनेवालों की सभी मनोकामनाएं होती है पूरी-
देव भूमि बाड़ी धार के बाड़ी मेले में जो आता है बाड़ा देव उसकी सभी मन की मुरादें पूरी करतें है यही कारण श्रद्धालु दूर-२ से इस मेले को देखने के लिए यहाँ पहुँचते हैं। इस मेले की पूर्व संध्या पर इस स्थान पर रतजगा अर्थात जागरण का आयोजन होता है। इस मेले में भारी भीड़ होती है। माना जाता है की जितनी भीड़ यहाँ मेले के दिन होती है उससे ज्यादा भीड़ इसकी पूर्व संध्या पर रतजगे वाली रात को होती है। मेले की पूर्व संध्या पर यहाँ कीर्तन भजन होता है। मेले की पूर्व संध्या पर यहां ढोल-नगाड़ों के साथ पूज(पूजा) बाड़ी को रवाना होती है। हालांकि मेले वाले दिन यहाँ तीन पूजा देखने को मिलती है। पूजा से अभिप्राय यह है की जब पांडवों की मूर्तियाँ बाड़ी क लिए भगवान् शंकर से मिलन करवाने के लिए बाड़ी की ओर से जाती है तो उसके पीछे श्रद्धालु ढोल नगाड़ों की साथ बाड़ी के लिए प्रस्थान करती है। जिसे ‘पूज अथवा पूजा’ के नाम से पुकारा जाता है। यह नाम प्राचीन काल से दिया जा चूका है, रात को केवल दो ही पूजा बाड़ी के लिए प्रस्थान करती है जिसमे पहली बुइला(सरयांज) और दूसरी कुंहर पंचायत देवस्थल(चौंरटु) से जाती है। तीसरी पूजा रात के समय यहाँ पर शामिल नही होती है। कारण यह है की यह पूज लगभग 4-5 घंटे का पैदल रास्ता तय करना पड़ता है जो रात में संभव नही है। इसलिए तीसरी पूज के श्रद्धालु अपना पूर्व संध्या का काम भी मेले वाले दिन ही करते हैं। मेले के दिन मूर्तियाँ पालकियों द्वारा बाड़ी तक पहुंचाई जाती है।
इस मेले में पांड्वो का सम्मान देने के लिए विभिन्न प्रकार की मन को मोहने वाली धुनें बजायी जाती है स्थानीय भाषा जिसे ‘बेल’ कहतें हैं। बाड़ीधार मेले के आठ दिन पहले सभी देवालयों में बेल बजानी शुरू हो जाती है।
लोगों की धारणा है की इस मेले में जो भी व्यक्ति सच्चे मन से पुकार करता है उसकी मुराद ज़रूर पूरी होती है। इसलिए प्रतिवर्ष हजारों की तादाद में लोग अपने इष्टदेव बाड़ादेव के दर्शनों के लिए आतें है। यह मेला आषाढ़ मास की सक्रांति को बहुत ही हर्षोउल्लास से मनाया जाता है।