कांगड़ा: (हिमदर्शन समाचार); आपने कभी सुना है कि किसी मंदिर में मिलने वाले प्रसाद को खाया नहीं जा सकता। हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा में एक ऐसा अकेला शक्तिपीठ है जहां माघ मास में आयोजित होने वाले पर्व के बाद मिलने वाले प्रसाद को आप खा नहीं सकते। मान्यता है कि शरीर के चरम रोगों और जोड़ों के दर्द में लेप करने के लिए यह प्रसाद रामबाण का काम करता है।
यह परंपरा देवीय काल से चली आ रही है और शक्तिपीठ मां बज्रेश्वरी के इतिहास से संबंधित है। कहते हैं कि जालंधर दैत्य को मारते समय माता के शरीर पर कई चोटें लगी थीं। इन्हीं घावों को भरने के लिए देवताओं ने माता के शरीर पर मक्खन का लेप किया था।
उसी परंपरा के अनुसार मक्खन का लेप माता की पिंडी पर किया जाता है। मकर संक्रांति पर श्रद्धालुओं की ही आस्था है कि हर बार माता की पिंडी पर मक्खन की ऊंचाई बढ़ती जा रही है।
इस बार मंदिर में 14 जनवरी से शुरू हुए घृत पर्व में माता की पिंडी पर करीब 28 क्विंटल मक्खन चढ़ाया गया है। मां की पिंडी को फल मेवों, फूलों और फलों से सजाया गया है। यह पर्व सात दिन चलता है। सातवें दिन यानी 20 जनवरी को माता की पिंडी के घृत (मक्खन) उतारने की प्रक्रिया शुरू होगी।
इसके बाद 21 जनवरी को घृत(मक्खन) प्रसाद के तौर पर श्रद्धालुओं में बांटा जाएगा। मान्यता है कि पर्व के बाद मिलने वाले प्रसाद को आप खा नहीं सकते, इस प्रसाद को श्रद्धालु अपने शरीर के चरम रोगों और जोड़ों के दर्द में लेप करने के लिए प्रयोग करतें है। यह प्रसाद रामबाण का काम करता है।
मंदिर के इतिहास पर छपी किताब में भी इस परंपरा का जिक्र है। घृत मंडल पर्व पर माता की पिंडी पर मक्खन चढ़ाने की प्रक्रिया काफी पहले शुरू हो जाती है। स्थानीय और बाहरी लोगों द्वारा मंदिर में दान स्वरूप देसी घी/मक्खन पहुंचाया जाता है। मन्दिर के पुजारी मक्खन की पिन्नियां बनातें है और चौदह जनवरी को देर शाम माता की पिंडी पर मक्खन चढ़ाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है जो सुबह तक जारी रहती है।